8 December 2025
भारत की आर्थिक कमज़ोरियों और दूरदर्शिता की कमी का चीन द्वारा फायदा उठाया जा रहा है
भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अगस्त के अंत में चीन का दौरा किया और चीन के साथ संबंधों को आगे बढ़ाने पर स्वतः लगाए गए अनेकों प्रतिबंधों को तोड़ा या अनदेखा किया। इसमें 2020 की गर्मियों में चीनी अतिक्रमण से उत्पन्न मुद्दों के पूर्ण समाधान पर ज़ोर देना भी शामिल था। दोनों पक्षों के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर एक असहज और अविश्वासपूर्ण शांति है, लेकिन भारत चीन से व्यापार और निवेश पर प्रतिबंधों के साथ-साथ चीनी व्यापारियों और पर्यटकों के लिए वीज़ा प्रतिबंधों में भी ढील दे रहा है। दिल्ली और बीजिंग सीधी उड़ानें और सीमा व्यापार फिर से शुरू करने, जल-विज्ञान संबंधी आँकड़े साझा करने और दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंधों की स्थापना की 75वीं वर्षगांठ मनाने के लिए कार्यक्रमों की शुरुआत करने पर भी सहमत हुए हैं। इन सब के बीच कुछ अलंकृत शब्दावली भी वापस आ गई है, जैसे की "प्राचीन सभ्यताएँ", "वैश्विक दक्षिण के नेता", "ड्रैगन-हाथी टैंगो", इत्यादि।
डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन द्वारा भारत पर हाल ही में लगाए गए 50% टैरिफ को चीन के लिए भारत के इस खुलेपन के पीछे की वजह माना जा रहा है। हालाँकि इस खुलेपन के पीछे ट्रंप के टैरिफ को तर्क मानने से आगे बढ़ना ज़रूरी है। आखिरकार, दो साल पहले यही भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर थे जिन्होंने टीवी पर सरकार की चीन चुनौती से निपटने की क्षमता पर सवाल उठाने वाले अपने ही देशवासियों को झिड़कते हुए कहा था: “मैं क्या करूँ? छोटी अर्थव्यवस्था होने के नाते क्या मैं बड़ी अर्थव्यवस्था से झगड़ा करने चला जाऊँगा?”
चीन के आर्थिक आकार पर उस प्रकार से ध्यान में नहीं दिया गया था जब भारत सरकार ने अप्रैल 2020 में चीनी व्यापार और निवेश पर प्रतिबंध लगाए थे, जिसे प्रेस नोट 3 के रूप में जाना जाता है। लेकिन जयशंकर द्वारा कमजोरी की उस स्वीकारोक्ति ने संभवतः बाद में कूटनीतिक वार्ता में चीन को बढ़त दिला दी।
किसी भी स्थिति में भारत की अपनी आर्थिक कमज़ोरियाँ और उसके व्यवसायों की दीर्घकालिक रणनीतिक निर्णय लेने में असमर्थता, भले ही इसका अर्थ अल्पकालिक कष्ट ही क्यों न हो, का अर्थ है कि आत्मनिर्भरता के लगातार आह्वान के बावजूद क्षमता निर्माण का अवसर गँवा दिया गया है। इसके लिए जहाँ अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों की भूमिका रही है, वहीं भारत सरकार की अपनी आर्थिक नीतियाँ भी कम दोषी नहीं हैं। व्यवहार में 'सहकारी संघवाद' न के बराबर है और जिन राज्यों को भारत जैसे विशाल देश में विकास का इंजन होना चाहिए, वे ऐसा करने में असक्षम हैं। चाहे केंद्र सरकार के स्तर पर हो या स्वयं राज्यों के स्तर पर, अत्यधिक केंद्रीकरण, बैंक ऋण का खराब प्रवाह, और एक खराब ढंग से परिकल्पित उत्पादन-लिंक्ड प्रोत्साहन योजना ने आर्थिक गतिशीलता को कम कर दिया है और उत्पादकता और विकास को बढ़ावा देने के लिए आवश्यक पहल और जोखिम लेने की क्षमता को दबा दिया है। उतनी ही महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत के उद्योग जगत के बड़े दिग्गजों ने अनुसंधान एवं विकास में निवेश पर कंजूसी की है, जो भारत को प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अग्रणी बनाने के लिए आवश्यक है। चीनी निजी कंपनियाँ अनुसंधान एवं विकास पर होने वाले कुल व्यय का 77% हिस्सा खर्च करती हैं, जबकि भारतीय निजी कंपनियाँ केवल 36.4% खर्च करती हैं, जिनमें से अधिकांश जैव प्रौद्योगिकी और सूचना प्रौद्योगिकी में खर्च होता है।
चीन में केंद्रीकरण या अधिनायकवाद की चाहे जिस भी स्तर का हो, नए विचारों और तकनीकों पर धन और दांव लगाने की इच्छाशक्ति में कोई कमी नहीं है। चीनी तकनीकी क्षेत्र में छलांग लगाकर असममित लाभ प्राप्त करने के महत्व को समझते हैं, जैसा कि उन्होंने डीपसीक एआई टूल के माध्यम से प्रदर्शित किया है।
इस बीच नीति आयोग और भारतीय उद्योग जगत का यह मानना कि अगर भारत और चीन साथ मिलकर काम करने पर सहमत हो जाएँ तो आर्थिक अवसर सामने आ सकते हैं, दरअसल मार्मिक तो है, लेकिन गलत भी है। यह चीनी राजनीतिक अर्थव्यवस्था की अज्ञानता से उपजा है। भारतीय उद्योग जगत से पूछिए कि चीन में 'निजी' कंपनी क्या है या किसी चीनी उद्यम के लिए 'लाभ' क्या है, तो यह तय है कि वे इसे सही ढंग से परिभाषित नहीं कर पाएँगे। चीनी पार्टी-राज्य यह सुनिश्चित करता है कि तथाकथित 'निजी क्षेत्र' को उसकी आज्ञा का पालन करना होगा, जबकि उन्हें निजी उद्यम से जुड़े लचीलेपन और चपलता का प्रयोग करने की अनुमति है।
प्रेस नोट 3 की वजह बनने वाली कोई भी परिस्थिति नहीं बदली है, लेकिन अब समय आ गया है कि चीन नीति की सभी खामियों के लिए भारत सरकार को दोष देना बंद किया जाए। भारतीय उद्योग जगत ने न तो अपनी ज़िम्मेदारी निभाई है और न ही सही निवेश या सही विकल्प चुने हैं। नीति आयोग भारत से मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा देने के लिए "चीन की आपूर्ति श्रृंखला में शामिल होने" की वकालत कर रहा है और उसने चीनी कंपनियों को बिना सुरक्षा मंज़ूरी के भारतीय कंपनियों में 24 प्रतिशत तक हिस्सेदारी लेने की अनुमति देने का प्रस्ताव रखा है। 24 प्रतिशत के इस आंकड़े की क्या वजह है? विदेशी कंपनियां बिना किसी नियंत्रण हिस्सेदारी के निवेश क्यों करेंगी, खासकर ऐसे बाज़ार में जहाँ व्यापार सुगमता के मामले में भारत जैसा खराब माहौल है?
इस स्थिति में राहत की बात यह है कि न केवल भारत को चीनी निवेश की ज़रूरत है, बल्कि चीन को भी भारतीय बाज़ार की ज़रूरत है। चीन की विनिर्माण क्षमता की अधिकता एक गंभीर आर्थिक कमज़ोरी है और जब तक उसके उद्यमों को भारत जैसे बड़े, बढ़ते बाज़ारों तक पहुँच नहीं मिलती, तब तक चीन अपस्फीतिकारी दबावों का सामना करता रहेगा। अपनी विदेश और आर्थिक नीति-निर्माण में कई ग़लतियों के बावजूद,\ नई दिल्ली के पास अभी भी हालात बदलने का मौक़ा है, बशर्ते वह सहकारी संघवाद की अपनी बात पर अमल करे, भारतीय कंपनियों को अनुसंधान एवं विकास में निवेश के लिए प्रोत्साहित करे, और भारतीय बैंकों को छोटे और मध्यम उद्यमों को सक्रिय रूप से ऋण देने के लिए प्रेरित करे। सक्रिय आर्थिक और प्रशासनिक सुधारों के बिना भारत की चीन-नीति चीन के पक्ष में सैन्य और आर्थिक शक्ति संतुलन तक ही सीमित रहेगी।
Originally published in Malayalam as Anand P. Krishnan and Jabin T. Jacob.2025 ‘അക്കരപ്പച്ചയോ ചൈന’ (Is the grass greener in China?). Mathrubhumi. 4 September.
Translated by Pavan Chaurasia
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