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11 December 2025

द्विपक्षीय और बहुपक्षीय सौहार्द के बावजूद भारत-चीन संबंधों में चुनौतियाँ बनी हुई हैं



शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) शिखर सम्मेलन के लिए चीन जाने के सात साल बाद भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक और शिखर सम्मेलन के लिए वापस चीन गए। हालाँकि 2018 के बाद से भारत-चीन द्विपक्षीय संबंधों और अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक एवं आर्थिक स्थिति, दोनों में बहुत कुछ बदल गया है।

मोदी और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना के महासचिव और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच 2018 और 2019 में हुए 'अनौपचारिक शिखर सम्मेलनों' से, जिनसे 2017 के डोकलाम विवाद के बाद भारत-चीन संबंधों को एक नई दिशा मिलने की उम्मीद थी, रिश्ते तेज़ी से बिगड़ते गए। 2020 में वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) के पार चीनी अतिक्रमण की परिणति उस वर्ष जून के मध्य में गलवान घाटी में सैनिकों की शहादत के रूप में हुई। नई दिल्ली ने सैन्य जवाबी कार्रवाई करते हुए भारी संख्या में सैनिकों की तैनाती और सीमावर्ती बुनियादी ढाँचे का तेज़ी से विस्तार किया, जो आज भी जारी है।

हालाँकि आर्थिक रूप से चीनी व्यापार, निवेश और यहाँ तक कि ऐप्स के साथ-साथ चीनी नागरिकों के लिए वीज़ा और सीधी उड़ानों के निलंबन पर भारत द्वारा लगाए गए प्रतिबंध अगले कुछ महीनों में धीरे-धीरे हटाए जाने की संभावना है। इसे भारत पर थोपे गए कदम के रूप में देखा जा रहा है क्योंकि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने भारतीय वस्तुओं पर अतिरिक्त 25% टैरिफ लगा दिया है, जिसका कारण भारत द्वारा रूस से तेल खरीदना और यह विश्वास है कि यह खरीद किसी तरह यूक्रेन में रूसी युद्ध को जारी रखे हुए है। यह भारत को ब्राज़ील के साथ उन देशों में से एक बनाता है जिन पर अमेरिका ने सबसे अधिक टैरिफ लगाए हैं। हालाँकि यह ध्यान देने योग्य है कि भले ही चीन रूस से भारत से अधिक तेल खरीदता है, फिर भी अमेरिका ने चीन पर समान टैरिफ नहीं लगाए हैं।

इससे यह सवाल उठता है कि भारत खुद को ऐसी स्थिति में क्यों पाता है। हालाँकि भारतीय सशस्त्र बलों ने चीन के अतिक्रमण का यथासंभव जवाब दिया, लेकिन भारतीय व्यवसाय चीनी कंपनियों और उत्पादों द्वारा उत्पन्न आर्थिक और सुरक्षा चुनौतियों को समझने में कमज़ोर रहे हैं और इसलिए वैश्विक आर्थिक स्थिति और अमेरिका जैसे प्रमुख व्यापारिक साझेदार के साथ भारत के अपने आर्थिक संबंधों के बिगड़ने के कारण वे खुद को बेहद कम तैयार पाते हैं। सरकार की अपनी आर्थिक नीतियों की भी इसमें भूमिका रही है; यह शायद जीएसटी कर ढांचे को सरल बनाने की उसकी हालिया घोषणा से स्पष्ट है।

हालाँकि मोदी की चीन यात्रा का समय उनके दौरे से जुड़ा नहीं है, लेकिन अमेरिकी कार्रवाई के कारण यह यात्रा द्विपक्षीय और बहुपक्षीय महत्व रखती है। यह यात्रा उस "सामान्यीकरण प्रक्रिया" का हिस्सा है जिसकी शुरुआत दोनों नेताओं ने अक्टूबर 2024 में कज़ान में मुलाकात के दौरान की थी। भले ही कई मुद्दे अभी भी लंबित हों, जिनमें वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) के दोनों ओर लगभग 50,000 सैनिकों की वापसी भी शामिल है, फिर भी अब कोशिश यही होगी कि सुरक्षा संबंधी मुद्दों को फिलहाल दरकिनार कर दिया जाए क्योंकि भारत ज़्यादा गंभीर आर्थिक चिंताओं से जूझ रहा है। चीन के साथ अपने भारी व्यापार घाटे के अलावा भारत पिछले कुछ महीनों में उर्वरक के कच्चे माल, सुरंग खोदने वाली मशीनों और भारत के इलेक्ट्रिक वाहन उद्योग के लिए ज़रूरी रेयर अर्थ मैग्नेट (चुम्बक) पर निर्यात प्रतिबंधों के रूप में चीनी से आर्थिक दबाव का भी सामना कर रहा है।

मोदी को उम्मीद होगी कि ये प्रतिबंध हटा दिए जाएँगे और साथ ही भारतीय बाज़ार द्वारा दिया जा रहा प्रोत्साहन ज़रूरी चीनी निवेश और तकनीकी हस्तांतरण को आकर्षित करेगा। यह देखना बाकी है कि क्या चीन कोई ठोस रियायतें देगा।

बहुपक्षीय मोर्चे पर नई दिल्ली शंघाई सहयोग संगठन (SCO) और ब्रिक्स जैसे मंचों पर सक्रिय होकर अपनी 'रणनीतिक स्वायत्तता' के विचार को आगे बढ़ाएगा। अपने कार्यकाल के अधिकांश समय में अमेरिका के साथ घनिष्ठ संबंध बनाए रखने के बाद प्रधानमंत्री मोदी के लिए दुनिया के अन्य हिस्सों पर अपना ध्यान केंद्रित करना एक उपयोगी सुधार होगा। चीन की यात्रा से पहले जापान की अपनी यात्रा के दौरान उन्होंने निश्चित रूप से कुछ महत्वपूर्ण समझौते किए हैं, लेकिन कूटनीतिक रूप से भारत को वैश्विक दक्षिण के देशों के साथ अपने संबंधों पर अधिक ज़ोर देने और पहल करने की आवश्यकता होगी।

हालाँकि भारत के लिए चुनौती यह होगी कि चीन, रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ एससीओ शिखर सम्मेलन में भारत की उपस्थिति को ‘पश्चिम-विरोधी’ और ‘अमेरिका-विरोधी’ मोर्चे की छवि बनाने के लिए प्रचारित करेगा। बीजिंग यह भी उम्मीद करेगा कि भारत आरसीईपी जैसी बहुपक्षीय व्यापारिक व्यवस्थाओं में शामिल होने के प्रति अधिक सकारात्मक रुख अपनाए, जहाँ चीन एक अग्रणी खिलाड़ी है। यह देखते हुए कि भारत में अमेरिका को चीन के विरुद्ध एक आवश्यक सुरक्षा कवच के रूप में व्यापक रूप से देखा जाता है, यह कहना जल्दबाजी होगी कि अमेरिकी नीतियाँ लंबी अवधि में भारत को रूस और चीन की ओर धकेलेंगी। यह बहुत हद तक संभव है कि भारतीय नीति-निर्माता अमेरिका के साथ संबंधों को सामान्य बनाने के लिए काम करने की कोशिश करेंगे, भले ही इसके लिए उन्हें वाशिंगटन डीसी को कुछ रियायतें ही क्यों न देनी पड़ें।

इस बीच, हालांकि, नई दिल्ली को उम्मीद होगी कि बीजिंग के साथ बातचीत करने से उसके अपने पड़ोस में चीनी दबाव भी कम हो जाएगा; ऑपरेशन सिंदूर के दौरान पाकिस्तान को चीनी सैन्य और अन्य सहायता देना हाल की बात है जिसे भुलाया नहीं जा सकता।

भारत-चीन संबंधों में अविश्वास के उच्च स्तर को देखते हुए शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) शिखर सम्मेलन के लिए प्रधानमंत्री मोदी की चीन में उपस्थिति और उनका गर्मजोशी से किया गया चीनी स्वागत को ट्रम्प प्रशासन की अंतर्राष्ट्रीय नीतियों द्वारा उत्पन्न उथल-पुथल से निपटने के लिए दोनों देशों द्वारा की गई रणनीति का हिस्सा ही कहा जा सकता है।


This article was originally published in Malayalam as Jabin T. Jacob and Anand P. Krishnan. 2025. ‘ചാരുന്നേയുള്ളൂ ; ഇന്ത്യ ചായുന്നില്ല’ (Only Leaning, India is Not Aligning). Malayala Manorama. 2 September.

Translated by Pavan Chaurasia