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2 December 2025

जलवायु को सुनना: भारतीय हिमालय में पर्यावरणीय कार्रवाई के उत्प्रेरक के रूप में सामुदायिक रेडियो



उत्तराखंड की पहाड़ियों और घाटियों में बसा सामुदायिक रेडियो- जिसे स्थानीय समुदायों द्वारा और उनके ही लिए संचालित एक कम लागत वाला, गैर-लाभकारी प्रसारण मंच के रूप में परिभाषित किया गया है- नाजुक हिमालयी क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन के बारे में संचार करने और पर्यावरण के प्रति जागरूकता का विस्तार करने में एक महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में उभर रहा है। ये स्टेशन, टिहरी गढ़वाल में हेंवलवाणी सामुदायिक रेडियो (90.4 एफएम) , रुद्रप्रयाग में मंदाकिनी की आवाज (90.8 एफएम) , और नैनीताल में कुमाऊं वाणी सामुदायिक रेडियो स्टेशन (90.4 एफएम), केवल सामुदायिक मुद्दों के लिए प्रतिध्वनि कक्ष नहीं हैं। ये अपने आप में ज्ञान प्रणालियाँ हैं, जो हिमनदों के पीछे हटने, वन क्षरण, जल की कमी और अनिश्चित मौसम के बारे में अति-स्थानीय अंतर्दृष्टि प्रदान करती हैं। संचार का यह जमीनी स्तर का मॉडल केवल तकनीक के बारे में नहीं है, बल्कि विश्वास, प्रासंगिकता और गहरी जड़ें जमाए हुए सामुदायिक जुड़ाव के बारे में है।

जलवायु विज्ञान का स्थानीयकरण

सामुदायिक रेडियो जलवायु विज्ञान को रोज़मर्रा की भाषा में अनुवाद करने में उत्कृष्ट है। जब वैज्ञानिक रिपोर्ट तापमान विसंगतियों या परिवर्तित वर्षा चक्रों की बात करती हैं, तो ये स्टेशन इसे संबंधित अवलोकनों में विभाजित करते हैं: जैसे की सेब के मौसम का छोटा होना, मानसून में देरी, जल स्रोतों का सूखना। मंदाकिनी की आवाज़ के मानवेंद्र कहते हैं, "वनों के नुकसान और ग्लेशियरों के पिघलने पर हमारे कार्यक्रम ग्रामीणों की देखी और महसूस की गई बातों पर आधारित हैं, जैसे कम बर्फबारी, सूखते झरने, और अधिक भूस्खलन।"

ये अमूर्त या हवा-हवाई चर्चाएँ नहीं हैं। ये पर्यावरणीय परिवर्तन के जीवंत संग्रह को दर्शाती हैं, स्थानीय बोलियों में प्रसारित, लोक ज्ञान से गुंथी हुई, और अक्सर श्रोताओं की चिंताओं से निर्देशित। सामुदायिक रेडियो एक साक्षी और चेतावनी प्रणाली दोनों बन जाता है, जो जागरूकता को बढ़ावा देते हुए समुदायों को अनुकूलन करने में सक्षम बनाता है।

इसके अलावा ये प्रसारण एक सामूहिक पर्यावरणीय शब्दावली का निर्माण करते हैं जो समय के साथ जलवायु साक्षरता का निर्माण करती है। चर्चाएँ विभिन्न मौसमों में दोहराई जाती हैं और बीच-बीच में स्थानीय बुजुर्गों, स्कूली बच्चों और अग्रिम पंक्ति के कार्यकर्ताओं की आवाज़ों के साथ मिलकर पर्यावरणीय जोखिमों से परिचित कराती हैं। जैसे-जैसे जलवायु विज्ञान विकसित होता है, वैसे-वैसे इसके प्रारूप भी विकसित होते हैं, एकालाप से लेकर फ़ोन-इन शो तक, फ़ील्ड रिकॉर्डिंग से लेकर कहानी-आधारित प्रारूप तक, जो बदलते मौसम को बदलती कृषि पद्धतियों से जोड़ते हैं। ऐसा करके सामुदायिक रेडियो न केवल यह आकार देता है कि लोग जलवायु के बारे में क्या जानते हैं, बल्कि यह भी कि वे इसे कैसे जानते हैं और उस समझ को दूसरों के साथ कैसे साझा करते हैं।

पूर्व चेतावनी, तत्काल राहत

जब गढ़वाल हिमालय में अचानक बाढ़ या बादल फटने की घटनाएँ होती हैं, तो औपचारिक चेतावनियाँ अक्सर बहुत देर से पहुँचती हैं या अलग-थलग बस्तियों तक पहुँच ही नहीं पातीं। सामुदायिक रेडियो इस कमी को पूरा करता है। रुद्रप्रयाग बाढ़ के दौरान ‘मंदाकिनी की आवाज़’ ने जनसेवा बुलेटिनों को तेज़ी से सक्रिय किया, निकासी मार्ग साझा किए, प्रभावित परिवारों को गैर-सरकारी संगठनों से जोड़ा और सोशल मीडिया के माध्यम से प्रसारित हो रही गलत सूचनाओं को दूर किया।

चूँकि ये स्टेशन स्थानीय स्वयंसेवकों के साथ काम करते हैं और समुदाय का गहरा विश्वास बनाए रखते हैं, इसलिए संकटकालीन संचार में उनकी भूमिका तत्काल और प्रभावशाली होती है। जैसा कि मानवेंद्र याद करते हैं, "हमने ऊपर से आने वाले निर्देशों का इंतज़ार नहीं किया। हमने अपनी लाइनें खोल दीं और लोगों को अपनी ज़रूरत की जानकारी देने की अनुमति दे दी।"

जंगल की आग और स्थानीय तैयारी

उत्तराखंड में बढ़ते तापमान, सूखे और चीड़ की एकल-कृषि फसलों के प्रसार से जुड़ी वनाग्नि की घटनाओं में चिंताजनक वृद्धि देखी गई है। जहाँ मुख्यधारा की कवरेज केवल आपदाओं के दौरान ही बढ़ती है, वहीं सामुदायिक रेडियो स्टेशन साल भर वनाग्नि की तैयारियों पर कार्यक्रम प्रसारित करते रहते हैं। हेनवलवाणी में, स्वयंसेवकों ने अग्नि-रेखाओं, जल प्रबंधन और सामुदायिक गश्त पर ऑडियो टूलकिट तैयार किए हैं। राजेंद्र दिग्गल कहते हैं, "हम वन रक्षकों, पंचायत नेताओं और महिला समूहों को इस बात पर चर्चा करने के लिए आमंत्रित करते हैं कि क्या किया जा सकता है। हमारा उद्देश्य केवल सूचना देना नहीं, बल्कि भागीदारी सुनिश्चित करना है।" पूर्वानुमानित संचार का यह मॉडल, जहाँ जलवायु खतरों को एक घटना के रूप में नहीं, बल्कि निरंतर चलने वाला माना जाता है, इन स्टेशनों को पर्यावरणीय शासन के लिए अपरिहार्य बनाता है।

पारिस्थितिक कथा को फिर से तैयार करना

मुख्यधारा के पर्यावरणीय विमर्श में अक्सर हिमालयी दृष्टिकोणों को दरकिनार कर दिया जाता है या उन्हें 'नाज़ुक पारिस्थितिकी तंत्र' के नाम पर एकरूप कर दिया जाता है । सामुदायिक रेडियो इसी आख्यान को नए सिरे से गढ़ता है। यह पारिस्थितिक व्यवधान के जीवंत अनुभव को उजागर करता है, जिसमे न केवल पिघलते ग्लेशियर, बल्कि बुवाई के समय का अनुमान न लगा पाने वाले किसानों की चिंता, और न केवल जल संकट, बल्कि सामुदायिक प्रयासों से पारंपरिक झरनों का पुनरुद्धार भी शामिल है।

कुमाऊँ वाणी की एक श्रृंखला में श्रोताओं ने बदलते वायु पैटर्न, लुप्त होती पक्षी प्रजातियों और कृषि चक्र को बाधित करने वाले आक्रामक खरपतवारों के प्रत्यक्ष अनुभव साझा किए। ये कहानियाँ जब संग्रहीत और धारावाहिक रूप से प्रकाशित की जाती हैं, तो एक ऐसी "स्थानीय पर्यावरणीय स्मृति" का निर्माण करती हैं जो नीति, अनुसंधान और जमीनी स्तर की योजना बनाने के लिए आवश्यक है।

पर्यावरणीय नागरिकता की ओर

जागरूकता से परे, ये स्टेशन पर्यावरणीय नागरिकता की भावना का विकास कर रहे हैं। यानी जलवायु शासन में ज़िम्मेदारी, आवाज़ और भागीदारी की भावना। जब युवा हिमनद झीलों पर शो की एंकरिंग करते हैं, जब महिलाएं जल संरक्षण पर चर्चा का संचालन करती हैं, जब किसान असामान्य कीट प्रकोप की सूचना देने के लिए कॉल करते हैं, तो वे केवल मीडिया के उपभोक्ता नहीं होते। वे पर्यावरणीय बहस की रूपरेखा तैयार कर रहे हैं।

इस प्रक्रिया में सामुदायिक रेडियो संचार के माध्यम से भूमि, जलवायु और एक-दूसरे के साथ सह-अस्तित्व के माध्यम में परिवर्तित हो जाता है।

निष्कर्ष

अपने सिद्ध महत्व के बावजूद ये रेडियो स्टेशन संसाधनों की कमी से जूझ रहे हैं और राज्य की जलवायु योजना से बाहर हैं। इन्हें जिला-स्तरीय आपदा प्रबंधन प्रोटोकॉल, जलवायु शिक्षा पाठ्यक्रम और पर्यावरणीय डेटा संग्रह में एकीकृत करने से प्रतिरोधक्षमता के प्रयासों में आमूल-चूल सुधार हो सकता है। जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन तीव्र होता जा रहा है, खासकर भारतीय हिमालय जैसे पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में, उसके साथ-साथ पर्यावरणीय संचार में सामुदायिक रेडियो की भूमिका को और अधिक संस्थागत समर्थन की आवश्यकता है। ये केवल सूचना चैनल नहीं हैं, बल्कि अस्तित्व बचने के लिए एक ध्वनि-पट्टी हैं।

लेखक परिचय: डॉ. अनिरुद्ध जेना, IUCN इंडिया के हिमालयाज़ फ़ॉर फ़्यूचर” के तहत “स्टोरीज़ ऑफ़ होप” फ़ेलो हैं और भारतीय प्रबंध संस्थान (IIM) काशीपुर में संचार विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं। उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है और वे X पर @AniruddhaJena नाम से उपलब्ध हैं।

आभार: लेखक, IUCN इंडिया के समर्थन के लिए कृतज्ञ हैं। यह टिप्पणी IUCN इंडिया द्वारा हिमालयाज़ फ़ॉर फ़्यूचर के अंतर्गत प्रदान की गई “स्टोरीज़ ऑफ़ होप” फ़ेलोशिप का परिणाम है।


Original: Anirudhh Jena. 2025. ‘Urbanisation, Extreme Rainfall, and Disaster Risk in the Himalaya’. Commentary. Centre of Excellence for Himalayan Studies. 4 November.

Translated by Pavan Chaurasia