9 December 2025
चीन की वैश्विक पहलें: अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के पतन की तैयारी
चीन ने तियानजिन नगर में शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) शिखर सम्मेलन के दौरान एक नई वैश्विक पहल की घोषणा की, जिसका नाम ‘वैश्विक शासन पहल (Global Governance Initiative) है। यह उन तीन पहले से चल रही वैश्विक पहलों- विकास, सुरक्षा और “सभ्यता” में चौथी जोड़ है। ये सभी पहलें यह दर्शाती हैं कि चीन को अब यह आत्मविश्वास हो गया है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के कारण उत्पन्न हुई वैश्विक अराजकता के बीच उसके विचार को दुनिया स्वीकार करेगी। यह आत्मविश्वास इस सामान्य धारणा से भी पनपता है, जिसे चीन स्वयं अपने सहयोगियों के माध्यम से भारी प्रचारित करता है कि अमरीका और पूरा पश्चिम अब अंतिम पतन की ओर बढ़ रहा है।
चीन की यह नई पहल इसलिए भी ध्यान खींच रही है क्योंकि ये संयुक्त राष्ट्र (यूएन) और विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) की निरंतर प्रासंगिकता पर सवाल उठने के ठीक बीच आई है। इन संस्थाओं में समस्याएँ हैं (जिनमें से कुछ के लिए अमरीका और चीन दोनों ही जिम्मेदार हैं), लेकिन वर्तमान में सारी आलोचना अमरीका की ही होती है, जबकि चीन की “वैश्विक पहलें” यह छवि बना रही हैं कि वह न केवल किसी समस्या का कारण नहीं है, बल्कि उन्हें सुधारने की कोशिश भी कर रहा है।
वैश्विक शासन पहल पर चीनी कॉन्सेप्ट पेपर में चीन अपने लिए बड़े-बड़े दावे करता है; वह खुद को “विश्व शांति का दृढ़ निर्माता, वैश्विक विकास में योगदानकर्ता, अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था का रक्षक और सार्वजनिक वस्तुओं का प्रदाता” बताता है। भले ही भारतीयों के लिए ये दावे हास्यास्पद लग सकते हैं, लेकिन वैश्विक दक्षिण के उन देशों के लिए, जिन्होंने यह देखा है कि जहां एक ओर अमरीका , यूरोप या भारत बुनियादी ढांचे और वित्तीय कमी को पूरा नहीं कर पाए, वहाँ चीन ने काम किया है, इन दावों में कुछ सच्चाई नजर आती है।
“अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था का रक्षक चीन”?
चीन का वैश्विक शासन पहल लाना यह संकेत देता है कि उसे मौजूदा अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के स्वरुप को लेकर कुछ चिंताएँ हैं, भले ही वह उसकी रक्षा करने का दावा करता हो। वास्तव में यदि चीन दक्षिण चीन सागर में अंतरराष्ट्रीय कानून को कमजोर कर रहा है, 2013 से भारत के साथ सीमा समझौतों को बार-बार बड़े पैमाने पर उल्लंघन करके उसे धता बता चुका है, और अपने व्यापारिक नीतियों से विश्व व्यापर संगठन के नियमों को लगातार कमजोर कर रहा है, तो ऐसे में वो अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था का कोई बहुत प्रतिबद्ध “रक्षक” तो नहीं है।
चीन एक साथ दो काम करने का प्रयास कर रहा है. अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के उन हिस्सों को चुनौती दे रहा है जो उसके हितों के खिलाफ हैं, जैसे की अमेरिकी वर्चस्व, पश्चिमी उदार मूल्य, और क्षेत्रीय दावे आदि। और उन हिस्सों को बचाकर रख रहा है जो उसके पक्ष में हैं, जैसे संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता और मुक्त व्यापार के नियम, जिन्हें वह अपनी आर्थिक ताकत से अपने फायदे में मोड़ सकता है।
वैसे तो कॉन्सेप्ट पेपर में बार-बार “वैश्विक शासन प्रणाली और संस्थाओं में सुधार” की बात है, लेकिन उसमे यह स्पष्ट किया गया है कि इसका अर्थ “मौजूदा अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को उलटना या उसके बाहर कोई नया ढांचा बनाना नहीं है”। चीन सिर्फ अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को “सभी देशों, विशेष रूप से विकासशील देशों” के हित में अधिक कुशल बनाना चाहता है, जिसका अर्थ यह है पश्चिमी नेतृत्व न केवल अकुशल है और विकासशील देशों की सेवा नहीं भी करता, जबकि चीन स्वाभाविक रूप से दोनों काम करने के लिए सबसे उपयुक्त है। स्थायी सदस्यता उस व्यवस्था का ऐसा शुद्ध लाभ है जिसे बीजिंग कभी नहीं छोड़ना चाहेगा। इसलिए वह संयुक्त राष्ट्र की अकुशलताओं के साथ चलता रहेगा, बजट में प्रतीकात्मक योगदान देगा, शांति सेना में भी, और महत्वपूर्ण यूएन निकायों का नेतृत्व भी चाहेगा, बशर्ते वह यह सब लाभ बनाए रख सके।
संयुक्त राष्ट्र का नियमित बजट 3.7 अरब डॉलर और शांति सेना बजट 5.6 अरब डॉलर है। 2025 के लिए अमरीका पर 1.5 अरब और चीन पर 597 मिलियन डॉलर का नियमित बजट बकाया है; शांति सेना बजट में भी क्रमशः 1.5 अरब और 587 मिलियन डॉलर दोनों देशों पर बकाया है। अमरीका लंबे समय से संयुक्त राष्ट्र की कार्यप्रणाली और नौकरशाही की खुली आलोचना करता रहा है और उसने आर्थिक सहायता रोककर या उसमे कटौती कर के सुधार लाने की कोशिश की है। लेकिन चीन भी अपने समर्थन की बयानबाजी के बावजूद संयुक्त राष्ट्र को धीरे-धीरे कमज़ोर और असक्षम करने में हिस्सेदार रहा है। वह अपनी वीटो शक्ति को उपयोगी मानता है, पर प्रक्रियात्मक कारण बताकर भुगतान में देरी करता है, ताकि यूएन में अधिक से अधिक लाभ हासिल कर सके। इससे यह बात तो साफ है कि जब तक संयुक्त राष्ट्र पूरी तरह से चीन के हितों के अधीन नहीं है, तब वह उसे पूर्ण समर्थन देने में भी रुचि नहीं रखता है। वास्तव में चीन भी ठीक अमरीका जैसा ही कर रहा है, यानि पैसे की ताकत से संयुक्त राष्ट्र का एजेंडा अपने पक्ष में ढाल रहा है। जब अमरीका और चीन अपने-अपने विरोधी एजेंडों के लिए लड़ेंगे, तो संयुक्त राष्ट्र के असफल होने का एक और कारण तैयार हो जाता है, और यही कारण है कि चीन को वैश्विक शासन पहल जैसे नए प्रोजेक्ट लाने की जरूरत महसूस हो रही है।
चयन का भ्रम
चीन की वैश्विक पहलें यह मानकर चल रही हैं कि संयुक्त राष्ट्र और/या विश्व व्यापर संगठन या तो विफल हो रहे हैं या अपने पतन की तैयारी कर रहे हैं। चीनी कॉन्सेप्ट पेपर में मौजूदा वैश्विक शासन की तीन कमियाँ गिनाई गई हैं, पहला, ग्लोबल साउथ (वैश्विक दक्षिण) का कम प्रतिनिधित्व, दूसरा, यूएन चार्टर के उद्देश्यों और सिद्धांतों का प्रभावी रूप से पालन न होना, और तीसरा, नई सीमाओं (जैसे की ऐआई, साइबरस्पेस, अंतरिक्ष) में शासन की कमी और प्रभावशीलता की कमी। ऐसी हर कमी को भरने में चीन अपनी क्षमता और अपने हित साधने का अवसर देखता है।
बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) सहित चीन की सभी वैश्विक पहलों को वैकल्पिक संरचनाएँ बनाने के प्रयास के रूप में समझा जाना चाहिए (भले जी अभी तक वो ऐसी संस्थाएं नहीं बनी हैं), जो कि संयुक्त राष्ट्र सिस्टम को ज़्यादा से ज़्यादा समय तक बनाए रखने के लिए सहारा बन सकें और इस बीच चीन को नियम बनाने, कूटनीति और प्रशासन का अनुभव प्राप्त करने में सहयोग कर सकें ताकि वह संयुक्त राष्ट्र और/या डब्लूटीओ के समाप्त होने की तैयारी कर सके।
जब ये संस्थाएँ ढहेंगी, तो ऐसा संभव नहीं होगा की इनके बदले सार्वभौमिक सदस्यता वाली नई संस्थाएं आ जाएंगी। चीन ने अभी अपनी वैश्विक पहलों को औपचारिक संस्थागत रूप नहीं दिया है, लेकिन स्पष्ट है कि ये सबसे निकटतम विकल्प होंगी और उस खाली जगह को आंशिक रूप से भरने के लिए तैयार हैं। अपनी वैश्विक पहलों के माध्यम से बीजिंग उन छोटे देशों को, जो की बहुपक्षीय व्यवस्था की सुरक्षा और संरक्षण के आदी हैं, को पश्चिम-नेतृत्व वाली वैश्विक संस्थाओं के लिए एक चीनी विकल्प की अवधारणा को स्वीकार करने के लिए प्रेरित कर रहा है।
लेकिन चार अलग-अलग वैश्विक पहलें क्यों? यह शायद चीनी लोगों के लिए एक दक्षता तर्क का हिस्सा है। विकास और सुरक्षा जैसे ठोस मुद्दों को सांस्कृतिक आदान-प्रदान या वैश्विक शासन तथा नियम-निर्माण संबंधी चर्चाओं जैसे अधिक अमूर्त उद्देश्यों से अलग रखने में मूल्य है, क्योंकि ये चर्चाएँ संभवतः लंबी खिंच सकती हैं। इस अलगाव से चीन को अपनी कूटनीतिक और आर्थिक संसाधनों की विशालता का अधिकतम लाभ उठाने में मदद मिलती है, जिससे वह चार अलग-अलग परियोजनाएँ या संगठन चला सकता है, ऐसा कुछ जो भारत जैसे वैश्विक दक्षिण साउथ के बड़े देश भी संसाधनों के अंतर के कारण नहीं कर पाएँगे। कार्यों का यह पृथक्करण चीन को यह भी सुनिश्चित करने में सक्षम बनाता है कि किसी एक संगठन में विरोध दूसरे संगठन को प्रभावित न करे, खासकर जब सदस्यता अलग-अलग हो। दूसरे शब्दों में, चीन एक अलग तरह की नकारात्मक शक्ति (veto power) का आनंद लेता है जिसमें वह एक क्षेत्र के काम को दूसरे क्षेत्र के मतभेदों से रुकने नहीं देता। या कम से कम अभी के लिए तो यही सोच हो सकती है। इसलिए चीन की वैश्विक पहलें उन देशों को विकल्प का भ्रम प्रस्तुत करती हैं जो इनमें शामिल हो चुके हैंक- वह भ्रम जो शायद अभी संयुक्त राष्ट्र या डब्ल्यूटीओ में दिख रहे गतिरोध की तुलना में अधिक पसंदीदा लगता हो।
भारत के विकल्प
भारत के सामने प्रश्न यह है कि उसके पास क्या विकल्प हैं? देखा जाए तो यूएन और डब्लूटीओ दोनों ही संस्थाएं अभी भारत के लिए इष्टतम नहीं चल रही हैं; जहाँ एक पहले में चीनी वीटो की समस्या है, वहीँ दूसरे में अमेरिकी जिद और चीनी उपेक्षा एक बड़ा कारण है. परन्तु फिर भी ये अकुशल संस्थाएँ भी चीनी प्रभुत्व वाले और चीन द्वारा चलाए जाने वाले विकल्पों से बेहतर हो सकती हैं। यदि ऐसा है तो भारत मौजूदा व्यवस्था को मजबूत करने के लिए क्या कर सकता है?
भारत के पास अब यूएन और उसकी गतिविधियों को आर्थिक रूप से सहयोग करने की क्षमता बढ़ रही है। लेकिन क्या वह बिना प्रतिनिधित्व (सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट) के ये सब करने को तैयार है? इसका उत्तर इस बात में निहित है कि भारत वैश्विक व्यवस्था के लिए क्या दृष्टि रखता है। न तो अमरीका की तरह मौजूदा विशेषाधिकार बचाने की चाहत और न चीन की तरह मौजूदा वर्चस्व को उलटने की मंशा भी, दरअसल भारत के हित इन दोनों के बीच में है। वह मौजूदा व्यवस्था से पूरी तरह खुश नहीं, लेकिन वो उसे उपयोगी भी पाता है। यह वह व्यवस्था है जिसमें दुनिया की सबसे बड़ी शक्ति के साथ उसका कार्यकारी रिश्ता है, जो उसे दुनिया की अगली बड़ी (और सीमा पर प्रतिद्वंद्वी) शक्ति से कुछ सुरक्षा देता है। फिर भी, दशकों से इस दोहरे दबाव में रहते हुए भी भारत ने चीन जैसी वैश्विक परियोजनाएँ (बीआरआई या चार वैश्विक पहलें) खड़ी करने में उतनी रचनात्मकता नहीं दिखाई है। भारत के पास विचारों की कोई कमी नहीं है,और प्रोजेक्ट मौसम, एशिया-अफ्रीका ग्रोथ कॉरिडोर, इंटरनेशनल सोलर अलायंस आदि इसके कुछ उदाहरण हैं। जो कमी रही है, वह है इन विचारों को विदेशी साझेदारों को बेचने में अधिक सफलता दर हासिल करने और उन्हें बड़े पैमाने के प्रोजेक्ट में बदलने की क्षमता की है। जब तक यह स्थिति बनी रहेगी, भारत हमेशा चीन की वैश्विक पहल के चलते इधर-उधर भटकता रहेगा।
Original: Jabin T. Jacob. 2025. ‘China’s Global Initiatives: Preparing for the Collapse of International Institutions’. India’s World. 2 November.
Translated by Pavan Chaurasia
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